Thursday, May 31, 2012

अन्धकासुर

                   बहुत समय पहले की बात है| हिरण्याक्ष का एक बेटा था, जिसका नाम अन्धक था| अन्धक ने तपस्या के द्वारा ब्रह्मा जी की कृपा से न मारे जाने का वर प्राप्त कर के त्रिलोकी का उपभोग करते हुए इन्द्रलोक को जीत लिया और वह इन्द्र को पीड़ित करने लगा| देवतागण उस से डर कर मंदरपर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गए| महादैत्य अन्धक भी देवताओं को पीड़ित करता हुआ गुफा वाले मंदरपर्वत पर पहुँच गया| सभी देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना  की| यह सब वृतांत सुन कर भगवान शिव अपने गणेश्वरों  के साथ अन्धक के समक्ष पहुँच गए तथा उन्हों ने उसके समस्त राक्षसों को भस्म कर के अन्धक को अपने त्रिशूल से बींध डाला| यह देख कर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवगण हर्षध्वनि करने लगे| त्रिशूल से बिंधे हुए उस अन्धक के मन में सात्विक भाव जागृत हो गए| वह सोचने लगा- शिव की कृपा से मुझे यह गति प्राप्त हुई है| अपने पुण्य-गौरव के कारण वह अन्धक उसी स्थिति में भगवान शिव की स्तुति करने लगा| उसकी स्तुति से प्रसन्न हो कर भगवान शंकर दयापूर्वक उसकी ओर देखते हुए बोले- हे अन्धक! वर मांगो, तुम क्या चाहते हो? अन्धक ने गदगद बाणी में महेश्वर से कहा- हे भगवन! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वर प्रदान करें की आप में मेरी सदा भक्ति हो|
                अन्धक का वचन सुन कर शिव ने उस दैत्येन्द्र को अपनी दुर्लभ भक्ति प्रदान की और त्रिशूल से उतार कर उसे गणाधिपद प्रदान किया|

Saturday, May 12, 2012

ऋषि शंख और लिखित

                          ऋषि शंख और लिखित दो भाई थे| दोनों धर्मशास्त्रके परम मर्मग्य थे| विद्या अध्ययन समाप्त कर के दोनों ने विवाह किया और अपने अपने आश्रम अलग अलग बना कर रहने लगे|
                            एक बार ऋषि लिखित अपने बड़े भाई शंख के आश्रम पर उनसे मिलने गए| आश्रम पर उस समय कोई भी नहीं था| लिखित को भूख लगी थी| उन्हों ने बड़े भाई के बगीचे से एक फल तोडा और खाने लगे| वे फल पूरा खा भी नहीं सके थे, इतने में शंख आगये| लिखित ने उनको प्रणाम किया|
                             ऋषि शंख ने छोटे भाई को सत्कार पूर्वक समीप बुलाया| उनका कुशल समाचार पूछा| इसके पश्चात् बोले-- भाई तुम यहाँ आये और मेरी अनुपस्थिति में इस बगीचे को अपना मानकर तुमने यहाँ से फल लेलिया, इस से मुझे प्रशन्नता हुई;किन्तु हम ब्राह्मणों का सर्वस्व धर्म ही है, तुम धर्म का तत्व जानते हो| यदि किसी की वस्तु  उसकी अनुपस्तिथि में उसकी अनुमति के बिना ले ली जाए तो इस कर्म की क्या संज्ञा होगी? "चोरी!" लिखित ने बिना हिचके जवाब दिया| मुझ से प्रमादवस यह अपकर्म होगया है| अब क्या करना उचित है?
                           शंख ने कहा! राजा से इसका दंड ले आओ| इस से इस दोष का निवारण हो जायेगा| ऋषि लिखित राजधानी गए| राजाने उनको प्रणाम कर के अर्घ्य देना चाहा तो ऋषि ने उनको रोकते हुए कहा-राजन! इस समय में आपका पूजनीय नहीं हूँ| मैंने अपराध किया है, आपके लिए मैं दंडनीय हूँ|
                           
                          अपराध का वर्णन सुन कर राजाने कहा- नरेश को जैसा दंड देने का अधिकार है, वैसे ही क्षमा करने का भी अधिकार है| लिखित ने रोका- आप का काम अपराध के दंड का निर्णय करना नहीं है,विधान निश्चित करना तो ब्रह्मण का काम है| आप विधान को केवल क्रियान्वित कर सकते हैं| आप को मुझे दंड देना है, आप दंड विधान का पालन करें|
                          उस समय दंड  विधान के अनुसार चोरी का दंड था- चोर के दोनों हाथ काट देना| राजा ने लिखत के दोनों हाथ कलाई तक कटवा दिए| कटे हाथ ले कर लिखित प्रशन्न हो बड़े भाई के पास लौटे और बोले- भैया! मैं दंड ले आया|


                         शंख ने कहा- मध्यान्ह-स्नान-संध्या का समय हो गया है| चलो स्नान संध्या कर आयें| लिखित ने भाई के साथ नदी में स्नान किया| अभ्यासवश तर्पण करने के लिए उनके हाथ जैसे ही उठे तो अकस्मात् वे पूर्ण हो गए| उन्हों ने बड़े भाई की तरफ देख कर कहा- भैया! जब यह ही करना था तो आप ने मुझे राजधानी तक क्यूँ दौड़ाया? शंख बोले - अपराध का दंड तो शासक ही दे सकता है; किन्तु ब्रह्मण को कृपा करने का अधिकार है|