किसी शहर में एक सेठ रहता था| सेठ बहुत दयालु और इश्वर भक्त था| उसका नियम था की वह किसी अतिथि को भोजन कराए बिना खुद भोजन नहीं करता था| एक दिन उसके यहाँ कोई भी अतिथि नहीं आया| इस लिए वह खुद किसी निर्धन मनुष्य को ढूढ़ने निकल पड़ा| मार्ग में उसे एक बहुत बृद्ध तथा दुर्बल मनुष्य मिला| उसे भोजन का निमंत्रण दे कर बड़े आदर पूर्वक वह उसे घर ले आया| हाथ पैर धुलवा कर भोजन कराने के लिए बैठाया|
अतिथि ने भोजन सम्मुख आते ही खाने के लिए ग्रास उठाया| उसने न तो भोजन मिलने के लिए इश्वर को धन्यवाद किया, और नहीं इश्वर की बंदगी की| सेठ को यह देख कर हैरानी हुई| उसने अतिथि से इसका कारण पूछा| अतिथि ने कहा-मैं तुम्हारे धर्म को मानने वाला नहीं हूँ, मैं अग्निपूजक हूँ| अग्नि को मैंने अभिवादन कर लिया है|
सेठ को यह सुनकर बहुत गुस्सा आया और अतिथि को कहा "काफ़िर कहीं का!चल निकल मेरे यहाँ से"| सेठ ने बृद्ध को उसी समय धक्के दे कर घर से बहार निकल दिया|
उस समय आकाशबाणी होई कि "सेठ! जिसे इतनी उम्रतक मैं प्रति दिन खुराक देता रहा हूँ, उसे तुम एक समय भी नहीं खिला सके! उल्टा तुमने निमंत्रण दे कर, घर बुलाकर उसका तिरस्कार किया! इस आकाशबाणी को सुन कर सेठ को अपने गर्व तथा ब्यवहार पर अत्यंत दुःख हुआ|