Sunday, August 23, 2015

मोची का लालच

                     किसी गाँव में एक धनी सेठ रहता था। उसके बंगले के पास एक जूते सिलने वाले गरीब मोची की छोटी सी दुकान थी। उस मोची की एक खास आदत थी कि जो जब भी जूते सिलता तो भगवान के भजन गुनगुनाता रहता था। लेकिन सेठ ने कभी उसके भजनों की तरफ ध्यान नहीं दिया । एक दिन सेठ व्यापार के सिलसिले में विदेश गया और घर लौटते वक्त उसकी तबियत बहुत ख़राब हो गयी । लेकिन पैसे की कोई कमी तो थी नहीं सो देश विदेशों से डॉक्टर, वैद्य, हकीमों को बुलाया गया लेकिन कोई भी सेठ की बीमारी का इलाज नहीं कर सका । अब सेठ की तबियत दिन प्रतिदिन ख़राब होती जा रही थी। वह चल फिर भी नहीं पाता था , एक दिन वह घर में अपने बिस्तर पे लेटा था अचानक उसके कान में मोची के भजन गाने की आवाज सुनाई दी,आज मोची के भजन कुछ अच्छे लग रहे थे सेठ को, कुछ ही देर में सेठ इतना मंत्र मुग्ध हो गया कि उसे ऐसा लगा जैसे वो साक्षात परमात्मा से मिलन कर रहा हो।
                   मोची के भजन सेठ को उसकी बीमारी से दूर लेते जा रहे थे। कुछ देर के लिए सेठ भूल गया कि वह बीमार है उसे अपार आनंद की प्राप्ति हुई । कुछ दिन तक यही सिलसिला चलता रहा, अब धीरे धीरे सेठ के स्वास्थ्य में सुधार आने लगा।
                 एक दिन उसने मोची को बुलाया और कहा:- मेरी बीमारी का इलाज बड़े बड़े डॉक्टर नहीं कर पाये लेकिन तुम्हारे भजन ने मेरा स्वास्थ्य सुधार दिया। ये लो 1000 रुपये इनाम, मोची खुश होते हुए पैसे लेकर चला गया । लेकिन उस रात मोची को बिल्कुल नींद नहीं आई वो सारी रात यही सोचता रहा कि इतने सारे पैसों को कहाँ छुपा कर रखूं और इनसे क्या क्या खरीदना है ?
इसी सोच की वजह से वो इतना परेशान हुआ कि अगले दिन काम पे भी नहीं जा पाया। अब भजन गाना तो जैसे वो भूल ही गया था, मन में खुशी थी पैसे की।
               अब तो उसने काम पर जाना ही बंद कर दिया और धीरे धीरे उसकी दुकानदारी भी चौपट होने लगी । इधर सेठ की बीमारी फिर से बढ़ती जा रही थी ।एक दिन मोची सेठ के बंगले में आया और बोला सेठ जी आप अपने ये पैसे वापस रख लीजिये, इस धन की वजह से मेरा धंधा चौपट हो गया, मैं भजन गाना ही भूल गया। इस धन ने तो मेरा परमात्मा से नाता ही तुड़वा दिया। मोची पैसे वापस करके फिर से अपने काम में लग गया ।
               मित्रों ये एक कहानी मात्र नहीं है ये एक सीख है कि किस तरह हम पैसों का लालच हमको अपनों से दूर ले जाता है, हम भूल जाते हैं कि कोई ऐसी शक्ति भी है जिसने हमें बनाया है। आज के माहौल में ये सब बहुत देखते को मिलता है लोग 24 घंटे सिर्फ जॉब की बात करते हैं, बिज़निस की बात करते हैं, पैसों की बात करते हैं। हालाँकि धन जीवन यापन के लिए बहुत जरुरी है लेकिन उसके लिए अपने अस्तित्व को भूल जाना मूर्खता ही है।
                 आप खूब पैसा कमाइए लेकिन साथ ही साथ अपने माता -पिता की सेवा करिये , दूसरों के हित की बातें सोचिये और भगवान का स्मरण करिये यही इस कहानी की शिक्षा है.

Wednesday, May 6, 2015

भाग्य से ज्यादा और समय से पहले, न किसी को मिला है और न मिलेगा।

                एक सेठ जी थे जिनके पास काफी दौलत थी और सेठ जी ने उस धन से निर्धनों की सहायता की, अनाथ आश्रम एवं धर्मशाला आदि बनवाये। इस दानशीलता के कारण सेठ जी की नगर में काफी ख्याति थी। सेठ जी ने अपनी बेटी की शादी एक बड़े घर में की थी परन्तु बेटी के भाग्य में सुख न होने के कारण उसका पति जुआरी, शराबी, सट्टेबाज निकल गया जिससे सब धन समाप्त हो गया। बेटी की यह हालत देखकर सेठानी जी रोज सेठ जी से कहती कि आप दुनिया की मदद करते हो मगर अपनी बेटी परेशानी में होते हुए उसकी मदद क्यों नहीं करते हो। सेठ जी कहते कि भाग्यवान जब तक बेटी-दामाद का भाग्य उदय नहीं होगा तब तक मैं उनकी कीतनी भी मदद भी करूं तो भी कोई फायदा नहीं। जब उनका भाग्य उदय होगा तो अपने आप सब मदद करने को तैयार हो जायेंगे। परन्तु मां तो मां होती है, बेटी परेशानी में हो तो मां को कैसे चैन आयेगा। इसी सोच-विचार में सेठानी रहती थी कि किस तरह बेटी की आर्थिक मदद करूं। एक दिन सेठ जी घर से बाहर गये थे कि तभी उनका दामाद घर आ गया। सास ने दामाद का आदर-सत्कार किया और बेटी की मदद करने का विचार उसके मन में आया कि क्यों न मोतीचूर के लड्डूओं में अर्शफिया रख दी जाये जिससे बेटी की मदद भी हो जायेगी और दामाद को पता भी नही चलेगा। यह सोचकर सास ने लड्डूओ के बीच में अर्शफिया दबा कर रख दी और दामाद को टीका लगा कर विदा करते समय पांच किलों शुद्ध देशी घी के लड्डू जिनमे अर्शफिया थी वह दामाद को दिये। दामाद लड्डू लेकर घर से चला। दामाद ने सोचा कि इतना वजन कौन लेकर जाये क्यों न यहीं मिठाई की दुकान पर बेच दिये जायें। और दामाद ने वह लड्डुयों का पैकेट मिठाई वाले को बेच दिया और पैसे जेब में डालकर चला गया।
                      उधर सेठ जी बाहर से आये तो उन्होंने सोचा घर के लिये मिठाई की दुकान से मोतीचूर के लड्डू लेता चलू और सेठ जी ने दुकानदार से लड्डू मांगे मिठाई वाले ने वही लड्डू का पैकेट सेठ जी को वापिस बेच दिया जो उनके दामाद को उसकी सास ने दिया थे। सेठ जी लड्डू लेकर घर आये सेठानी ने जब लड्डूओ का वही पैकेट देखा तो सेठानी ने लड्डू फोडकर देखे अर्शफिया देख कर अपना माथा पीट लिया। सेठानी ने सेठ जी को दामाद के आने से लेकर जाने तक और लड्डुओं में अर्शफिया छिपाने की बात सेठ जी से कह डाली। सेठ जी बोले कि भाग्यवान मैंनें पहले ही समझाया था कि अभी उनका भाग्य नहीं जागा। देखा मोहरें ना तो दामाद के भाग्य में थी और न ही मिठाई वाले के भाग्य में।
                     इसलिये कहते हैं कि भाग्य से ज्यादा और समय से पहले न किसी को कुछ मिला है और न मिलेगा। 

Sunday, November 30, 2014

प्रभु की लीला

                    एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी। जिसे पाकर ब्राहमण ख़ुशी ख़ुशी घर लौट चला। पर राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया। अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।
                    ब्राहमण की व्यथा सुनकर उन्हें फिर से उस पर दया आ गयी और इस बार उन्होंने ब्राहमण को एक माणिक दिया। ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा और चोरी होने के डर से उसे एक घड़े में छिपा दिया। दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी, इस बीच ब्राहमण की स्त्री उस घड़े को लेकर नदी में जल लेने चली गयी और जैसे ही उसने घड़े को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धरा के साथ बह गया। ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया। अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में उसे देखा तो जाकर सारा हाल मालूम किया। सारा हाल मालूम होने पर अर्जुन भी निराश हुए और मन की मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।                       
                अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई। उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए। तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु मेरी दी मुद्राए और माणिक भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से इसका क्या होगा” ? यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस ब्राहमण के पीछे जाने को कहा। रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि"दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया"? तभी उसे एक मछुवारा दिखा जिसके जाल में एक मछली तड़प रही थी। ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट कि आग तो बुझेगी नहीं क्यों न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल दिया।
                  कमंडल के अन्दर जब मछली छटपटई तो उसके मुह से माणिक निकल पड़ा। ब्राहमण ख़ुशी के मारे चिल्लाने “लगा मिल गया मिल गया ”..!!! तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहा से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी। उसने सोचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया और अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी। यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके। जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं।

Tuesday, November 4, 2014

घंटीधारी ऊंट

                   एक बार की बात है कि एक गांव में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत गरीब था। उसकी शादी बचपन में ही हो गई थी। बीवी आने के बाद घर का खर्चा बढ़ना था। यही चिन्ता उसे खाए जाती। फिर गांव में अकाल भी पड़ा। लोग कंगाल हो गए।

                   जुलाहे की आय एकदम खत्म हो गई। उसके पास शहर जाने के सिवा और कोई चारा न रहा। शहर में उसने कुछ महीने छोटे-मोटे काम किए। थोड़ा-सा पैसा अंटी में आ गया और गांव से खबर आने पर कि अकाल समाप्त हो गया है, वह गांव की ओर चल पड़ा।
                   रास्ते में उसे एक जगह सड़क किनारे एक ऊंटनी नजर आई। ऊंटनी बीमार नजर आ रही थी और वह गर्भवती थी। उसे ऊंटनी पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ अपने घर ले आया। घर में ऊंटनी को ठीक चारा व घास मिलने लगी तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और समय आने पर उसने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। बच्चा उसके लिए बहुत भाग्यशाली साबित हुआ।

                  कुछ दिनों बाद ही एक कलाकार गांव के जीवन पर चित्र बनाने उसी गांव में आया। पेंटिंग के ब्रुश बनाने के लिए वह जुलाहे के घर आकर ऊंट के बच्चे की दुम के बाल ले जाता। लगभग दो सप्ताह गांव में रहने के बाद चित्र बनाकर कलाकार चला गया।
इधर ऊंटनी खूब दूध देने लगी तो जुलाहा उसे बेचने लगा। एक दिन वही कलाकार गांव लौटा और जुलाहे को काफी सारे पैसे दे गया, क्योंकि कलाकार ने उन चित्रों से बहुत पुरस्कार जीते थे और उसके चित्र अच्छी कीमतों में बिके थे।

                 जुलाहा उस ऊंट बच्चे को अपने भाग्य का सितारा मानने लगा। कलाकार से मिली राशि के कुछ पैसों से उसने ऊंट के गले के लिए सुंदर-सी घंटी खरीदी और पहना दी। इस प्रकार जुलाहे के दिन फिर गए। वह अपनी दुल्हन को भी एक दिन गौना करके ले आया।

                  ऊंटों के जीवन में आने से जुलाहे के जीवन में जो सुख आया, उससे जुलाहे के दिल में इच्छा हुई कि जुलाहे का धंधा छोड़ क्यों न वह ऊंटों का व्यापारी ही बन जाए। उसकी पत्नी भी उससे पूरी तरह सहमत हुई। अब तक वह भी गर्भवती हो गई थी और अपने सुख के लिए ऊंटनी व ऊंट बच्चे की आभारी थी।
जुलाहे ने कुछ ऊंट खरीद लिए। उसका ऊंटों का व्यापार चल निकला। अब उस जुलाहे के पास ऊंटों की एक बड़ी टोली हर समय रहती। उन्हें चरने के लिए दिन को छोड़ दिया जाता। ऊंट बच्चा जो अब जवान हो चुका था उनके साथ घंटी बजाता जाता।

                  एक दिन घंटीधारी की तरह ही के एक युवा ऊंट ने उससे कहा, भैया! तुम हमसे दूर-दूर क्यों रहते हो?

घंटीधारी गर्व से बोला 'वाह तुम एक साधारण ऊंट हो। मैं घंटीधारी मालिक का दुलारा हूं। मैं अपने से ओछे ऊंटों में शामिल होकर अपना मान नहीं खोना चाहता। 'उसी क्षेत्र में वन में एक शेर रहता था। शेर एक ऊंचे पत्थर पर चढकर ऊंटों को देखता रहता था। उसे एक ऊंट और ऊंटों से अलग-थलग रहता नजर आया।

                  जब शेर किसी जानवर के झुंड पर आक्रमण करता है तो किसी अलग-थलग पड़े को ही चुनता है। घंटीधारी की आवाज के कारण यह काम भी सरल हो गया था। बिना आंखों देखे वह घंटी की आवाज पर घात लगा सकता था।

                    दूसरे दिन जब ऊंटों का दल चरकर लौट रहा था तब घंटीधारी बाकी ऊंटों से बीस कदम पीछे चल रहा था। शेर तो घात लगाए बैठा ही था। घंटी की आवाज को निशाना बनाकर वह दौड़ा और उसे मारकर जंगल में खींच ले गया। ऐसे घंटीधारी के अहंकार ने उसके जीवन की घंटी बजा दी।

सीखः जो स्वयं को ही सबसे श्रेष्ठ समझता है, उसका अहंकार शीघ्र ही उसे ले डूबता है।

Monday, September 29, 2014

*एक पते की बात*


एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता।
उसकी छोटी सी दुकान थी।
उससे जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था।चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता।
वह लोगों के सामने डींग हांका करता था।
एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। संत कह रहे थे,
“दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता। यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा।सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।”
सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा,
“मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है।मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।”
संत बोले,
“यह तुम्हारा भ्रम है। हर कोई अपने भाग्य का खाता है।”
इस पर मुखिया ने कहा,
“आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए।"
संत ने कहा,
“ठीक है।तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ।"
उसने ऐसा ही किया।
संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने अपना भोजन बना लिया है।
मुखिया के परिवार वाले कई दिनों तक शोक संतप्त रहे।
गांव वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए।
एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी।
एक व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया और उनके दिन फिर मजे में गुजरने लगे।
एक महीने बाद मुखिया छिपता -छिपाता रात के वक्त अपने घर आया।
घर वालों ने भूत समझकर दरवाजा नहीं खोला। जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही उत्तर दिया,
‘हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है।
अब हम पहले से ज्यादा सुखी हैं।’
उस व्यक्ति का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया। संसार किसी के लिए भी नही रुकता!
यहाँ सभी के बिना काम चल सकता है संसार सदा से चला आ रहा है और चलता रहेगा। जगत को चलाने की हामी भरने वाले बड़े- बड़े सम्राट मिट्टी हो गए। जगत उनके बिना भी चला है और आगे भी चलता रहेगा। फिर किस बात पर अभिमान करना।
इसीलिए अपने बल का, अपने धन का, अपने कार्यों का, अपने ज्ञान का गर्व व्यर्थ है।

Thursday, August 21, 2014

उपदेशामृत !

एक बार एक स्वामी जी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी, भीक्षा दे दे माते!!
घर से महिला बाहर आयी। उसनेउनकी झोली मे भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए!”
स्वामीजी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।” दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज दी – भीक्षा दे दे माते!!
उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमे बादाम- पिस्ते भी डाले थे, वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामी जी ने अपना कमंडल आगे कर दिया।
वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ाहै।
उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।”
स्वामीजी बोले, “हाँ, गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।”
स्त्री बोली, “नहीं महाराज,तब तो खीर ख़राब हो जायेगी । दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।”
स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न?” स्त्री ने कहा : “जी महाराज !”
स्वामीजी बोले, “मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा।
यदि उपदेशामृत पान करना है,तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।

Thursday, July 31, 2014

काबिलियत

                       किसी जंगल में एक बहुत बड़ा तालाब था . तालाब के पास एक बागीचा था , जिसमे अनेक प्रकार के पेड़ पौधे लगे थे . दूर- दूर से लोग वहाँ आते और बागीचे की तारीफ करते .
गुलाब के पेड़ पे लगा पत्ता हर रोज लोगों को आते-जाते और फूलों की तारीफ करते देखता, उसे लगता की हो सकता है एक दिन कोई उसकी भी तारीफ करे. पर जब काफी दिन बीत जाने के बाद भी किसी ने उसकी तारीफ नहीं की तो वो काफी हीन महसूस करने लगा . उसके अन्दर तरह-तरह के विचार आने लगे—” सभी लोग गुलाब और अन्य फूलों की तारीफ करते नहीं थकते पर मुझे कोई देखता तक नहीं , शायद मेरा जीवन किसी काम का नहीं, कहाँ ये खूबसूरत फूल और कहाँ मैं,” और ऐसे विचार सोच कर वो पत्ता काफी उदास रहने लगा.
                     दिन यूँही बीत रहे थे कि एक दिन जंगल में बड़ी जोर-जोर से हवा चलने लगी और देखते-देखते उसने आंधी का रूप ले लिया. बागीचे के पेड़-पौधे तहस-नहस होने लगे , देखते-देखते सभी फूल ज़मीन पर गिर कर निढाल हो गए , पत्ता भी अपनी शाखा से अलग हो गया और उड़ते-उड़ते तालाब में जा गिरा.
पत्ते ने देखा कि उससे कुछ ही दूर पर कहीं से एक चींटी हवा के झोंको की वजह से तालाब में आ गिरी थी और अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी.
                   चींटी प्रयास करते-करते काफी थक चुकी थी और उसे अपनी मृत्यु तय लग रही थी कि तभी पत्ते ने उसे आवाज़ दी, ” घबराओ नहीं, आओ , मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ .”, और ऐसा कहते हुए अपनी उपर बैठा लिया. आंधी रुकते-रुकते पत्ता तालाब के एक छोर पर पहुँच गया; चींटी किनारे पर पहुँच कर बहुत खुश हो गयी और बोली, ” आपने आज मेरी जान बचा कर बहुत बड़ा उपकार किया है , सचमुच आप महान हैं, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ! “
                  यह सुनकर पत्ता भावुक हो गया और बोला,” धन्यवाद तो मुझे करना चाहिए, क्योंकि तुम्हारी वजह से आज पहली बार मेरा सामना मेरी काबिलियत से हुआ , जिससे मैं आज तक अनजान था. आज पहली बार मैंने अपने जीवन के मकसद और अपनी ताकत को पहचान पाया हूँ |
                 मित्रों , ईश्वर ने हम सभी को अनोखी शक्तियां दी हैं ; कई बार हम खुद अपनी काबिलियत से अनजान होते हैं और समय आने पर हमें इसका पता चलता है, हमें इस बात को समझना चाहिए कि किसी एक काम में असफल होने का मतलब हमेशा के लिए अयोग्य होना नही है . खुद की काबिलियत को पहचान कर आप वह काम कर सकते हैं , जो आज तक किसी ने नही किया है !